• मुशर्रफ अली -वास्तविक मुद्दों पर छाए भावनात्मक मुद्दे
लोकसभा चुनाव की घोषणा होते ही देशभर में राजनीतिक दलों की सक्रियता बहुत बढ़ गई है । एक ओर पार्टियां विभिन्न चुनावी क्षेत्र से अपने प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर रही हैं तो दूसरी और असंतुष्ट प्रत्याशियों द्वारा दल-बदल का सिलसिला भी जारी । राजनेताओं का लक्ष्य अब केवल सत्ता तक पहुंचना ही रह गया है सिद्धांत और विचारधारा जैसी कोई चीज नहीं रह गई हैं, इसलिए चुनाव आते आते बहुत से समीकरण बनने और बिगड़ने की संभावना है ।वर्तमान माहौल में पूर्ण बहुमत हासिल करना किसी भी पार्टी के लिए टेढ़ी खीर होगा, इसलिए हर पार्टी अपना महत्व और अपनी भूमिका सुनिश्चित करने के लिए जी जान से लगी हुई है । एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी जोरों पर चल रहा हैं और हर पार्टी दूसरी पार्टी की छवि बिगाड़ने में लगी हुई है । केंद्र सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल में सकारात्मक कार्य बहुत कम किए हैं इसलिए नकारात्मक मुद्दे ही ज्यादा उछाले जा रहे हैं । भाजपा अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए पूरा जोर लगा रही है । गत माह यानी फरवरी 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर में 28 दौरे किये और कहीं फीता काटा तो कहीं कोई प्रोजेक्ट लांच किया । 8 फरवरी से 9 मार्च के 1 महीने में प्रधानमंत्री ने हाईवे, रेलवे लाइन, मेडिकल कालेज, अस्पताल, स्कूल, गैस पाइपलाइन, एयरपोर्ट, पानी का कनेक्शन, और पावर प्लांट जैसे 157 प्रोजेक्ट लान्च किये । इसके ठीक बाद ही चुनाव की तारीखों की घोषणा की गई और आचार सँहिता लागू हो गई । राज्य स्तर पर भी सत्ताधारी पार्टियों ने वोटरों को लुभाने के लिए तरह-तरह के प्रोजेक्ट शुरू किये । जनसभओं का आयोजन हो रहा है, वोटरों से कभी न पूरे होने वाले वादे किए जा रहे हैं, और दूसरी पार्टियों का नाकारा बनाया जा रहा है ।
हमारे देश का दुर्भाग्य यह है यहां किसी दल को वोट देने फैसला सामान्यतः जाति, धर्म, क्षेत्र, इत्यादि भावनात्मक मुद्दों के आधार पर होता है गरीबी, बेरोजगारी, किसानों और मजदूरों की समस्या, नागरिक सुविधाओं का अभाव, जैसे जन जीवन से जुड़े मुद्दे पीछे चले जाते हैं । इस चुनाव में भी बनावटी और नकारात्मक मुद्दे उछाले जा रहे हैं और वास्तविक मुद्दों से जनता का ध्यान हटाया जा रहा है । बेरोजगारी, जो आज के नवजवानों की सबसे ज्वलंत समस्या है, पर कोई बात नहीं की जा रही है, किसानों की समस्या पर कहीं बहस नहीं हो रही हैं, बर्बाद हो रहे कारोबार, कंगाल हो रहे बैंक, खोखली होती अर्थव्यवस्था को चुनाव मुद्दा नहीं बनने दिया जा रहा है । न सत्ताधारी दल की ओर से और ना ही विपक्षी दलों की ओर से । अगर कहीं से ऐसा कोई वास्तविक मुद्दा उठता भी है तो सरकारी तंत्र अपने मीडिया के माध्यम से उसको दबा देता है और उसकी जगह कोई काल्पनिक भावनात्मक मुद्दा खड़ा कर देता हैएकाध को छोड़कर पुरा मीडिया एक लंबे समय से इसी लाइन पर काम कर रहा है इसी बीच तरह-तरह की आशंका भी जताई जा रही हैं । पिछले दिनों एक अमेरिकी एजेंसी ने यह आशंका जताई थी कि लोकसभा चुनाव से पहले हिंसा और दंगे भड़काये जा सकते हैं। उसके बाद पूर्व चुनाव आयुक्त टी. एस. कृष्णमूर्ति ने भी कहा है कि जिस तरह राजनीतिक दल आपस में लड़ रहे हैं उससे लगता है कि आने वाले चुनाव में धनबल और बाहुबल का बहुत ज्यादा इस्तेमाल होगा । ऐसी हालत में चुनाव आयोग के लिए आचार संहिता का पालन कराना एक बड़ी चुनौती होगी ।